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Showing posts from November, 2012

देखा है मैंने

देखा है मैंने उस लौ को जलते धीमे धीमे, और बढ़ते देखा है मैंने उस आग में जलने की तपस और ऊपर उठने की चाह में देखा है मैंने उस इंधन सी लकड़ी को जल जाए जो लौ को बढाने में उसे और उंचा उठाने में देखा है मैंने उस त्याग को खुद जल कर बढ़ाये जो आंच को देखा है मैंने, उस कमज़ोर होती लौ में जिसे ऊपर उठाने की ज़रूरत में लकड़ी जल कर राख हुई देखा है मैंने उन सूखे पत्तो को निष्फल, व्यर्थ जिन्हें समझा गया हो लपट में झुलसे जो, देखा है मैंने उस लौ को भड़कते शोला बन कर हर तरफ धधकते फिर अचानक शांत हो कर जो फिर लगे बुझने देखा है मैंने उस मंद होती लौ को उसके जलने से ले कर उसके बुझ जाने क सफ़र को लकड़ी जली, जले सूखे पत्ते आग से, आग के लिए | लौ जली, उठी, उठती ही गयी अंत में बुझ कर शुक्रिया वो कह गयी त्याग है उसकी ऊँचाई का आधार जीवन है उसका, उनकी मृत्यु का उपहार |