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Showing posts from June, 2015

बड़ा होता बचपन

उन दिनों की बात है ये, जब ज़बान ज़रा सी कच्ची थी होठों की मुस्कान मेरी सबकी निगाह में सच्ची थी जब ख्वाब देखे थे ऊँँचे ऊँँचे धरातल से जिसका काम न था ख़ुशी के धागो से बुनकर सपनों का बस एक महल बनाना था आज भी वही हूँ मैं बस वक़्त ज़रा सा गुज़रा है समझदारी के घूंघट में सपनों को बचा के रखा है व्यवहारिकता की सीमा में अब नए ख्वाब जनम लेते हैं खुश तब भी थी, खुश आज भी हूँ जीवनरीत शायद इसी को कहते हैं