Skip to main content

Posts

Showing posts from November, 2011

चार पंक्तियाँ बाल दिवस पर

बचपन के क्या दिन थे.. कुछ नासमझ से जो हम थे.. भोला सा वो अपना मन, याद आये आज बचपन | द्वेष और छल से वंचित था, प्यार से केवल संचित था | आज वक़्त की दौड़ में गुम है.. खोया खोया सा मासूम बचपन है |

कलयुग

जहाँ आज सब वक़्त से होड़ करतें हैं, मैं पीछे बैठ सन्नाटे को सुनती हूँ, इस भेड़ चाल में जब यहाँ वहाँ देखते सब , मैं उस नज़र को देख ताज्जुब करती हूँ, इंसान की कीमत उसकी तरक्की से आंकना, क्या यही इंसानो का मोल है? निश्छल मन के मायिने नहीं ? उसके अपने सपनो के रास्ते नहीं ? शायद यही वो कलयुग है जहाँ दर्द लोगो को नहीं जोड़ता है शायद यही वो कलयुग है जहा धक्का देकर मनुष्य विजय माला पिरोता है -प्रिया सिंह