याद है वो शामें जो गुज़ारी थी मैंने तुम्हारे साथ सूरज ढलते देखके.. चाय की चुस्कियों के संग नयी ख्वाहिशो की बातें करके.. दो पल ठहर के सोचो ज़रा, वहाँ से कितना दूर आ गए हम.. सपने सच होने लगे हैं नए ख्वाबों को जगह देने लगे हैं :) - प्रिया सिंह
उन दिनों की बात है ये, जब ज़बान ज़रा सी कच्ची थी होठों की मुस्कान मेरी सबकी निगाह में सच्ची थी जब ख्वाब देखे थे ऊँँचे ऊँँचे धरातल से जिसका काम न था ख़ुशी के धागो से बुनकर सपनों का बस एक महल बनाना था आज भी वही हूँ मैं बस वक़्त ज़रा सा गुज़रा है समझदारी के घूंघट में सपनों को बचा के रखा है व्यवहारिकता की सीमा में अब नए ख्वाब जनम लेते हैं खुश तब भी थी, खुश आज भी हूँ जीवनरीत शायद इसी को कहते हैं