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नया वक्त

याद है वो शामें जो गुज़ारी थी मैंने तुम्हारे साथ सूरज ढलते देखके.. चाय की चुस्कियों के संग नयी ख्वाहिशो की बातें करके.. दो पल ठहर के सोचो ज़रा, वहाँ से कितना दूर आ गए हम.. सपने सच होने लगे हैं नए ख्वाबों को जगह देने लगे हैं :) - प्रिया सिंह
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बड़ा होता बचपन

उन दिनों की बात है ये, जब ज़बान ज़रा सी कच्ची थी होठों की मुस्कान मेरी सबकी निगाह में सच्ची थी जब ख्वाब देखे थे ऊँँचे ऊँँचे धरातल से जिसका काम न था ख़ुशी के धागो से बुनकर सपनों का बस एक महल बनाना था आज भी वही हूँ मैं बस वक़्त ज़रा सा गुज़रा है समझदारी के घूंघट में सपनों को बचा के रखा है व्यवहारिकता की सीमा में अब नए ख्वाब जनम लेते हैं खुश तब भी थी, खुश आज भी हूँ जीवनरीत शायद इसी को कहते हैं
जीवन की चाल अभी तेज़ है.. नज़र भी थोड़ी धुंधली.. जब ठहरेगी जिंदगी कुछ साल बाद.. सोचेंगे क्या खो दिया, क्या नहीं देखा.. | -प्रिया सिंह 

तेरी याद

आज बैठे तो कुछ और सोचा तुम्हे यूँ तो मन की हर छवि में तुम्हे उतरते देखा है चाय की चुस्की के साथ तुम्हे याद करके हर शाम को रात में बदलते देखा है अँधेरे ने जब जब ठण्ड की चादर ओढ़ी है अलाव कि गर्माहट में तुम्हारे स्पर्श का एहसास हो जाता है लपट की रौशनी में खो कर देखा जब भी तुम्हे तुम्हारा चेहरा मेरे मन का आईना सा लगता है इस खुश्क से मौसम और नंगी सर्द हवा में तुम्हारी याद का लम्हा कुछ थमा सा लगता है आदत हो जाती है वक़्त के साथ धीरे धीरे पर तुमसे दूरी का ख्याल आज भी अंजाना सा लगता है रास्ते पर ताकते हुए मैंने अपनी खिड़की से सन्नाटे को चीरती हर आवाज़ पर दिल को सम्भाला है एक झलक की ताक लगाये बैठी हूँ मैं कब से वो कहते हैं दूरियों का ही तो ज़माना है

संवेदनहीन सवाल

For the people who ask without emotions, just to know: मेरे मुख पर रिक्त सा भाव देखकर , प्रश्न जो तुमने किया है सोच लो, यह वह मधुर संवाद नहीं , जिसकी तुम्हे अपेक्षा है | मैं भी खूब समझती हूँ, इस प्रश्न से तुम्हारी क्या मंशा है , दुःख बांटना नहीं, बस जिज्ञासा शांत करने की तुम्हे इच्छा है | अपना भी रंज बताकर तुम आगे बढ़ जाओगे ; कहाँ सोचा था कभी तुमने जो आगे साथ निभाओगे , वो तो बस मन का कौतुहल था, जिसे मिटाने के लिए तुमने प्रश्नों की झड़ी लगाई | और क्या बस तुम्हे परवाह थी, जो तुम्हे अचानक मेरी याद आई ? उत्सुक मन को बहला कर, तुम बस एक धारणा बनाओगे ; दिल ही दिल में सोचकर एक राय स्थिर करवाओगे | पर अब मैं भी खूब समझती हूँ काले से अंतर को अपने भीतर बंद रखती हूँ | इस बाह्य दुनिया की रीत देख चुकी हूँ संवेदन-शून्य जाति का भेद बूझ चुकी हूँ |

देखा है मैंने

देखा है मैंने उस लौ को जलते धीमे धीमे, और बढ़ते देखा है मैंने उस आग में जलने की तपस और ऊपर उठने की चाह में देखा है मैंने उस इंधन सी लकड़ी को जल जाए जो लौ को बढाने में उसे और उंचा उठाने में देखा है मैंने उस त्याग को खुद जल कर बढ़ाये जो आंच को देखा है मैंने, उस कमज़ोर होती लौ में जिसे ऊपर उठाने की ज़रूरत में लकड़ी जल कर राख हुई देखा है मैंने उन सूखे पत्तो को निष्फल, व्यर्थ जिन्हें समझा गया हो लपट में झुलसे जो, देखा है मैंने उस लौ को भड़कते शोला बन कर हर तरफ धधकते फिर अचानक शांत हो कर जो फिर लगे बुझने देखा है मैंने उस मंद होती लौ को उसके जलने से ले कर उसके बुझ जाने क सफ़र को लकड़ी जली, जले सूखे पत्ते आग से, आग के लिए | लौ जली, उठी, उठती ही गयी अंत में बुझ कर शुक्रिया वो कह गयी त्याग है उसकी ऊँचाई का आधार जीवन है उसका, उनकी मृत्यु का उपहार |

Dream for tomorrow

Mystical dreams of my core Inclines me through a door, With spark of courage to go on.. Intricate route to chase Flow against niggling waves, But a dainty dream to hold on.. Gloomy shadow from inside But almighty by my side.. I will surely perceive the dawn.. In the making of tomorrow Let me struggle through the sorrow, And a new me will born.. Closing my eyes, still awake Making sure of final step, I will take, Tomorrow will not be far off..