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नया वक्त



याद है वो शामें जो गुज़ारी थी
मैंने तुम्हारे साथ सूरज ढलते देखके..
चाय की चुस्कियों के संग
नयी ख्वाहिशो की बातें करके..

दो पल ठहर के सोचो ज़रा,
वहाँ से कितना दूर आ गए हम..
सपने सच होने लगे हैं
नए ख्वाबों को जगह देने लगे हैं :)

- प्रिया सिंह

Comments

Winnie said…
Here you go girl..!! 😃

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ज़िन्दगी - II

ज़िन्दगी क्या कहलाती है? इस प्रश्न के उत्तर को क्या स्वयं प्रश्न को समझ पाना किसके लिए संभव है? गहनता को समेटे सब से लिपटी हुई फिर भी उस गहराई को समझना किसके लिए संभव है? वो भावनाएं को संचित किये असंख्य एहसास करवाती है उन एहसासों को समझना किसके लिए संभव है? सभी से प्रश्नों को समेट ते समय के साथ उत्तर तो देती है पर उस हर एक उत्तर को समझ पाना किसके लिए संभव है? विषाद और निशीथ की अवधि सभी में निश्चितता से वितरित करती, पर मनुष्य इस गूढ़ सी बात को समझ पाए कहाँ तक संभव है? दुःख की उदासी ,सुख की मुदिता की कैसे वृद्धि करती है, हर परिस्थिति में समझ पाना कहाँ तक संभव है? इस ज़िन्दगी के अनेक रूपों को उसके सांचे को समझ पाना किसके लिए संभव है? कहाँ तक संभव है? - प्रिया सिंह 

जय का कोई विकल्प नहीं

Dedicated to Naincy..  यह हार तो नहीं प्रिये बिगुल है उस चुनौती का | समक्ष ही खड़ी है जो उसे तुम यूँ स्वीकार लो | भय तो तेरा स्वभाव नहीं यह स्वभाव है बस हार का; पराजय तब तक होती नहीं, स्वीकार जब तक हो नहीं | विजय को तेरी आस है मिलेगी जब तक प्यास है, प्यास को न बुझा इस आग में बढ़ा ले अब इस ताप में | जीवन है, विजयगीत नहीं इस बात को भी गाठ लो | फिर लक्ष्य क्या और जीत क्या ? हार क्या वो बात क्या ? हौसलों को ऊंचा रखना है, आसमा को भी दिखाना है ; इरादे हो तो बस और क्या चुनौती भी सर झुकाती है, जय का कोई विकल्प नहीं यही तो हार हमे सिखाती है| -   प्रिया सिंह 

संवेदनहीन सवाल

For the people who ask without emotions, just to know: मेरे मुख पर रिक्त सा भाव देखकर , प्रश्न जो तुमने किया है सोच लो, यह वह मधुर संवाद नहीं , जिसकी तुम्हे अपेक्षा है | मैं भी खूब समझती हूँ, इस प्रश्न से तुम्हारी क्या मंशा है , दुःख बांटना नहीं, बस जिज्ञासा शांत करने की तुम्हे इच्छा है | अपना भी रंज बताकर तुम आगे बढ़ जाओगे ; कहाँ सोचा था कभी तुमने जो आगे साथ निभाओगे , वो तो बस मन का कौतुहल था, जिसे मिटाने के लिए तुमने प्रश्नों की झड़ी लगाई | और क्या बस तुम्हे परवाह थी, जो तुम्हे अचानक मेरी याद आई ? उत्सुक मन को बहला कर, तुम बस एक धारणा बनाओगे ; दिल ही दिल में सोचकर एक राय स्थिर करवाओगे | पर अब मैं भी खूब समझती हूँ काले से अंतर को अपने भीतर बंद रखती हूँ | इस बाह्य दुनिया की रीत देख चुकी हूँ संवेदन-शून्य जाति का भेद बूझ चुकी हूँ |